गुरु पूर्णिमा, सत्यवती और ऋषि पराशर की कहानी

गुरु पूर्णिमा से जुड़ी है सत्यवती और ऋषि पराशर की कहानी, सत्यवती और ऋषि पराशर के पुत्र महर्षि वेदव्यास के लिए समर्पित है गुरु पूर्णिमा का त्यौहार…

गुरु की महिमा पौराणिक शास्त्रों में प्रमुखता से बताई और समझाई गई है। गुरु को समर्पित तिथि ‘गुरु पूर्णिमा गुरु के प्रति अपने श्रद्धा भाव प्रकट करने का विशेष दिन है। गुरु पूर्णिमा भारत में एक त्यौहार की तरह मनाई जाती है। हमारा यह पारंपरिक त्यौहार गुरु शिष्य के रिश्ते को मजबूती देता है साथ ही गुरु को भी शिष्यों के प्रति और उत्तरदायी बनाता है।

गुरु पूर्णिमा क्यों मनाई जाती है?

वेदों, उपनिषदों, पुराणों, मीमांसा एवं महाभारत जैसे अद्वितीय वैदिक साहित्य के रचयिता महर्षि वेदव्यास की गणना भगवान श्री हरि विष्णु जी के 24 अवतारों में की जाती है महर्षि वेदव्यास जी का जन्म त्रेता युग के अंत में आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन हुआ था वह पूरे द्वापर युग तक जीवित रहे।

कहा जाता है कि महर्षि वेदव्यास ने कलयुग के शुरू होने पर पृथ्वी से प्रस्थान किया‌। मानव जाति के कल्याण के लिए वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, ब्रह्मसूत्र आदि की रचना करने के कारण वेदव्यास जी को पूरी मानव जाति का गुरु माना जाता है उनके सम्मान में से प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है

गुरु पूर्णिमा पर क्या करना चाहिए?

Guru Purnima के दिन शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं उनका आशीर्वाद लेते हैं और उन्हें उपहार देते हैं। इस दिन महर्षि वेदव्यास एवं उनके द्वारा रचित ग्रंथों की भी पूजा की जाती है। मठों एवं आश्रमों में ब्रह्मलीन संतों की मूर्ति और समाधि की पूजा की जाती है।

यदि आप साल भर गुरु का दर्शन ना कर पाए हो तो वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु के दर्शन कर आशीर्वाद अवश्य लें गुरु स्वयं भगवान से मिलाने वाले हैं इसलिए गुरु का महत्व अत्याधिक है गुरु पूर्णिमा मनाते हैं ताकि आप गुरू से जुड़ कर अपने जीवन के अंधकार को नष्ट करके ज्ञान की और बढ़ सकें।

सत्यवती और ऋषि पराशर की कहानी ➝

प्राचीन समय की बात है पाराशर मुनि भ्रमण के लिए गए हुए थे रास्ते में उनकी नजर एक युवती पर पड़ी जिसका नाम सत्यवती था। सत्यवती मछुआरे की पुत्री थी जो दिखने में बहुत ही सुंदर और आकर्षक थी परन्तु उसके शरीर से मछली की गंध आती थी जिसके कारण उसे मत्स्यगंधा भी कहा जाता था।

सत्यवती को देखते ही पाराशर मुनि का मन विचलित और हृदय व्याकुल हो गया। पराशर मुनि ने सत्यवती से संतान प्रदान करने की इच्छा जताई तब सत्यवती ने कहा यह अनैतिक है तब पराशर मुनि ने कहा जन कल्याण के लिए यह आवश्यक है यह संतान दिव्य होगी, सृष्टि में महान कार्य करेगी।

तब सत्यवती ने महर्षि पराशर के सामने शर्त रखी कि बच्चे के जन्म के बाद वह कुवांरी ही रहे तथा उसके शरीर से आने वाली मछली की गंध फूलों की सुगंध में परिवर्तित हो जाए ऋषि पराशर ने सत्यवती की शर्तों को स्वीकार कर लिया और उसे तथास्तु कहा उनके तथास्तु कहते ही सत्यवती के शरीर से आने वाली मछली की गंध समाप्त हो गई और वह मत्स्यगंधा, सुगंधा में परिवर्तित हो गई।

समय आने पर सत्यवती के गर्भ से आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन वेदों में पारंगत एक पुत्र का जन्म हुआ जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला ‘माता जब भी तुम मुझे स्मरण करोगी मैं उपस्थित हो जाऊंगा’ इतना कहकर वह तपस्या करने के लिए द्वैपायन द्वीप में चले गए।

कठोर तप के कारण उनके शरीर का रंग काला पड़ गया जिस कारण उन्हें कृष्ण-द्वैपायन कहा जाने लगा। वेदों की रचना करने के कारण वह वेदव्यास के नाम से विख्यात हुए।

एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर टहल रहे तभी उन्हें नाव चलाती हुई सत्यवती दिखी। सत्यवती के शरीर से आ रही सुगंध ने राजा के मन को मोह लिया और राजा तत्काल ही उसके पिता के पास पहुंच गए और सत्यवती के साथ विवाह की इच्छा जताई सत्यवती के पिता ने राजा शांतनु के सामने शर्त रखी कि मेरी कन्या का पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी बनेगा जिसे राजा शांतनु ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि राज्य का उत्तराधिकारी राजा शांतनु तथा माता गंगा का पुत्र देवव्रत था।

जब देवव्रत को इस बात का पता चला तो उन्होंने प्रतिज्ञा की वह जीवन भर अविवाहित रहेंगे। देवव्रत की ऐसी भीषण प्रतिज्ञा के बाद उन्हें भीष्म कहा जाने लगा। तत्पश्चात सत्यवती का विवाह राजा शांतनु के साथ हुआ तब राजा शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए जिनके नाम चित्रांगद और विचित्रवीर्य थे।

Guru purnima
गुरु पूर्णिमा


चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही राजा शांतनु का स्वर्गवास हो गया तब गंगापुत्र भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया परंतु कुछ ही समय बाद गंधर्वों के साथ युद्ध में चित्रांगद मारा गया इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य का कार्यभार सौंपा दिया। वंश चलाने के लिए भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिंता हुई उन्हीं दिनों काशीराज के यहां 3 कन्याओं अंबा, अंबिका और अंबालिका का स्वयंवर हुआ। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले भीष्म ने वहां आए हुए सभी राजाओं को परास्त कर तीनों कन्याओं का हरण करके हस्तिनापुर ले आए। काशीराज की बड़ी पुत्री अंबा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राजा शाल्व को अर्पित कर चुकी है उसकी बात सुनकर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया लेकिन राजा शाल्व ने अंबा को ग्रहण नहीं किया। अंबा निराश होकर वन में तपस्या करने चली गई तथा अंबिका और अंबालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया गया परंतु विचित्रवीर्य क्षय रोग से पीड़ित होकर अल्प आयु में बिना पुत्र के ही मृत्यु को प्राप्त हो गए।
पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर माता सत्यवती को बहुत दुख हुआ तब दुखी मन से उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया और याद करते ही वेदव्यास जी वहां प्रस्तुत हो गए सत्यवती उन्हें देख कर बोली हे पुत्र तुम्हारे सभी भाई निसंतान ही स्वर्गवासी हो गए हैं अब मेरे वंश का नाश होने से बचाने के लिए मैं तुम्हें आज्ञा देती हूं कि तुम उनकी पत्नियों से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न न करो वेदव्यास जी उनकी आज्ञा मानकर बोले हे माता आप उन दोनों रानियों से कह दीजिए कि वह एक वर्ष तक नियम-व्रत का पालन करें तभी उनको गर्भधारण होगा एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास जी सबसे पहले बड़ी रानी अंबिका के पास गए अंबिका ने उनकी तेज से डर कर अपने नेत्र बंद कर लिए तब वेदव्यास जी लौटकर सत्यवती से बोले ‘माता अंबिका का पुत्र बड़ा तेजस्वी होगा परंतु नेत्र बंद करने के दोष के कारण वह अंधा होगा’ सत्यवती को यह सुनकर बहुत दुख हुआ और उन्होंने वेदव्यास को छोटी रानी अंबालिका के पास भेजा रानी अंबालिका वेदव्यास जी को देखकर डर से पीली हो गई। लौटने के बाद वेदव्यास ने सत्यवती से कहा हे माता अंबालिका के गर्भ से रोग से ग्रसित पुत्र होगा इससे माता सत्यवती को और भी दुख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी को वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया इस बार बड़ी रानी ने स्वयं ना जाकर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया इस बार वेदव्यास जी ने सत्यवती के पास आकर कहा हे माता की दासी के गर्भ से वेदों में निपुण अत्यंत नीतिवान पुत्र होगा इतना कहकर वेदव्यास जी तपस्या करने चले गए समय आने पर अंबिका के गर्भ से धृतराष्ट्र ने जन्म लिया और अंबालिका के गर्भ से रोग से ग्रसित पांडु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ आगे चलकर जब धृतराष्ट्र के यहां कोई पुत्र नहीं हुआ तो वेदव्यास जी की कृपा से ही उनकी सौ संतानों ने जन्म लिया।

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